Description
प्रस्तुत निबन्ध लेखकों और आलोचकों की समस्याओं और निगाह से नहीं, उस सामान्य पाठक को ध्यान में रखकर लिया गया है, जो आज की कहानी को सम्पूर्ण कहानी के साथ रखकर समझना चाहता है, कहानी पढ़ने-समझने में रुचि रखता है और जिसके पास साहित्य की सामान्य पृष्ठभूमि है। आज की कहानी समझने के लिए आवश्यक ही है कि वह कहानी को उस समग्रता में जाने। बात को अधिक और आवश्यक प्रसंग में स्पष्ट करने के लिए अनेक जगह दुहराया या दूसरी तरह से भी कहा गया है। जगह-जगह यह पुनरावृत्ति इसलिए और भी आवश्यक हो गयी है कि नामों और स्थानों की विस्तृतियों में जाने की चिन्ता किये बिना कहानी की मूलभूत रूपरेखा और प्रवृत्तियों की खोज और विवेचना ही मेरा लक्ष्य रहा है और उसके लिए कहानी के शास्त्राीय पक्ष की अपेक्षा, जीवन तथा साहित्य-प्रभावों और परिस्थितियों वाले पक्ष पर ही मैंने अधिक बल दिया है। भरसक निष्पक्ष और तटस्थ रहने का प्रयास किया है, फिर भी विधा की जिस प्रवृत्ति से अपने को जुड़ा हुआ पाता हूँ, वह मेरा ‘अड्डा’ तो है ही। सारे आसमान का चक्कर लगाने वाला कबूतर लौट-लौटकर तो अपने अड्डे पर ही आता है। यह रचना मेरे लिए भी वह प्रक्रिया रही है जिसे अंग्रेज़ी में ‘वेडिंग थ्रू’ कहते हैंµअर्थात् एक-एक क़दम पानी ठेलते हुए किसी किनारे जा पहुँचने का एक प्रयत्न। और केवल इसी प्रत्याशा में यह प्रयत्न किया गया है कि शायद आज की कहानी को समझने में इसका भी योगदान हो और एक समग्र-कहानी की रूपरेखा के विकास में और समर्थ प्रयास किये जा सकें…
हिन्दी कथा-साहित्य के वरिष्ठ हस्ताक्षर राजेन्द्र यादव को जितना उनकी कहानियों और उपन्यासों के लिए जाना जाता है, उतना ही उनके बहस-पसन्द सुकराती स्वभाव के लिए भी। ‘हंस’ का सम्पादन करते हुए उन्होंने उसे साहित्य और समाज के विविध सवालों पर बहस का ऐसा ख़ुला मंच बनाया, जिसका उल्लेखनीय असर हिन्दी के साहित्यिक, बौद्धिक और आम पाठक वर्ग पर देखा जा सकता है। वे हिन्दी साहित्य में दलित और स्त्राी विमर्श के प्रमुख पैरोकारों में हैं। उम्र के छिहत्तरवें पड़ाव पर आ पहुँचे श्री यादव आज भी पूरी तरह सक्रिय हैं; उनका सृजन और वाद-विवाद-संवाद जारी है।
 
				
 
                             
                            


