Description
जिस मार्क्सवादी विचार-दर्शन को और उससे उपजे जिस साहित्य और कला-चिन्तन को पुस्तक में मुख्य विषय के रूप में व्याख्यायित और विवेचित किया गया है, सोवियत संघ और समाजवादी व्यवस्था की समाप्ति के बाद न केवल उनकी अहमियत पर प्रश्न-चिह्न लगाए जा रहे हैं, वर्तमान समय सन्दर्भों में उनके अप्रासंगिक हो जाने की उद्घोषणाएँ भी की जा रही हैं। विकल्प के रूप में नये-नये दार्शनिक अभिमत, समाज-व्यवस्थाओं के नये रूप एवं साहित्य और कला-चिन्तन की नयी-नयी दिशाएँ भी विज्ञापित और प्रचारित हो रही हैं। अपनी-अपनी खुशफहमी में पूँजीवादी विचारों तथा बुर्जुआ कला-चिन्तन के प्रवक्ता भूल गये हैं कि मार्क्सवाद उस समय भी था जब सोवियत समाजवादी संघ का उदय भी नहीं हुआ था, और मार्क्सवाद आज भी है, जबकि सोवियत संघ विघटित हो चुका है, और रूस तथा पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवादी व्यवस्था अतीत बन चुकी है। रही, मार्क्सवाद और उससे उपजे साहित्य और कला-चिन्तन की अहमियत और प्रासंगिकता की बात, वे आज भी उतने ही कारगर, दिशा-निर्देशक, प्रेरक और प्रासंगिक हैं, जितने पहले थे। यही नहीं, सोवियत संघ और समाजवादी व्यवस्था का विघटन हो, अथवा उसके बाद अमरीका के नेतृत्व में उपनिवेशवाद और विश्व पूँजीवाद की, नये और लुभावने मुखौटों में, बदले तौर-तरीकों, किन्तु विश्व वर्चस्व के खतरनाक मंसूबों के साथ चलने वाली मुहिम, मार्क्सवाद की रोशनी में न केवल उनके कारणों की शिनाख्त की जा सकती है, उन दुष्परिणामों तथा चुनौतियों से भी निपटा जा सकता है जो इस नये उपनिवेशवाद और सांस्थानिक पूँजीवाद ने, दुनिया, खासतौर से तीसरी दुनिया के कमजोर, पिछड़े हुए और नव-स्वतन्त्र देशों के समाजों को बेहद विषम-समाजों में बाँटते हुए, आर्थिक उदारीकरण, मुक्त-व्यापार, बाजार आदि के जरिए फेंकी हैं।



