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असम की जनजातियाँ : लोकपक्ष एवं कहानियाँ (Tribes of Assam: Folklore and Stories)

Original price was: ₹750.00.Current price is: ₹600.00.

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9789357753890

Description

जनजातियों में कुछ एक तरह की प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। जनजातीय लोग एक ही जगह के आदिवासी होते हैं, उनकी भाषा एक ही होती है। वे अपेक्षाकृत दुर्गम, सरहदी इलाक़े में बसना पसन्द करते हैं । जनजातीय लोग अपने लिए खुद सामग्री प्रस्तुत करते हैं। वे राजनैतिक रूप से संगठित होते हैं। वे लोग अपनी संस्कृति की रक्षा को लेकर तत्पर दिखायी पड़ते हैं। उनमें प्रथा के अनुसार क़ानून का शक्तिशाली प्रभाव लक्षित होता है। जनजातीय समाज में जातिभेद प्रथा की व्यवस्था नहीं है ।

जनजातियों में इन समताओं के होते हुए भी कई विषमताएँ हैं। इन जनजातियों पर अध्ययन बहुत कम हुआ है। ख़ासकर हिन्दी भाषा में असम की जनजातियों के अध्ययन का काम बहुत ही कम हुआ है। इस सन्दर्भ में इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि बीच-बीच में दो-एक आलेख या पुस्तकों का प्रकाशन होता रहा है पर समग्र रूप से जनजातियों पर अध्ययन कम ही हुआ है। इस पुस्तक में असम की कुल ग्यारह जनजातियों-बड़ो, मिचिङ, राभा, तिवा, हाजङ, कार्बि, गारो, टाइ फाके, डिमाचा और कुकि को निकटता से देखने का प्रयास किया गया है। इस क्रम में हिन्दी के प्राध्यापकों एवं शोधार्थियों ने अथक परिश्रम किया है। केवल किताब पर निर्भर न रहकर उन्होंने क्षेत्र – अध्ययन का काम भी किया है, विविध जनजातियों के लोगों से मिले और उनसे प्रत्यक्ष रूप से भी तथ्यों का संग्रह किया है। यह एक प्रयास है असम की जनजातियों के जीवन के विविध पक्षों को संक्षेप में ही सही, पर समग्रता से उकेरने का। एक ही पुस्तक में सभी जनजातियों को सम्मिलित करना सम्भव न था । इसीलिए संख्या और स्वीकृति के हिसाब से ग्यारह जनजातियों को यहाँ लिया गया है।

असम विविध जनजातियों की मिलन-भूमि है । सामाजिक रूप से ये जनजातियाँ प्रदेश के अन्य लोगों से पिछड़ी हुई हैं। यही कारण है कि इन जनजातियों का साहित्य भी पिछड़ा हुआ है। यूँ कहें कि असम की जनजातियों के साहित्य का यह अंकुरित काल है। भले ही आज से लगभग कई दशक पहले इनके साहित्य-सृजन की प्रक्रिया का शुभारम्भ हो चुका था, पर फिर भी देश के दूसरे प्रतिष्ठित साहित्य की अपेक्षा इनके साहित्य का विकास नहीं हो पा रहा है। इस क्षेत्र में बड़ो साहित्य सबसे आगे है। इन जनजातियों का मौखिक साहित्य तो मिल जाता है, पर आवश्यक संरक्षण के अभाव में यह भी समय के साथ-साथ विलुप्त होता जा रहा है। लिपि का अभाव जनजातीय साहित्य की सबसे बड़ी चुनौती है।

– पुस्तक की भूमिका से

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