Description
पुस्तकीय वक्तव्य: ‘शंकराचार्य द्वारा परिपुष्ट अद्वैत दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त’ उपनिषदों में प्रतिपादित, जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य तथा उत्तरवर्ती आचार्यों द्वारा पल्लवित-पुष्पित अद्वैत वेदान्त का एक प्रामाणिक सार-संग्रह है । प्रमुख उपनिषदों, वादरायण सूत्रों तथा श्रीमद्भगवद्गीता पर लिखे गए अपने सुप्रथित व्याख्या-ग्रन्थों में आचार्य आदि शंकर ने इस बात पर बल दिया है कि विभिन्न दार्शनिक शास्त्रों का ज्ञान बौद्धिक–विलास तथा पाण्डित्य-प्रदर्शन का साधक या माध्यम मात्र कहा जा सकता है । उनके शब्दों में वास्तविक या प्रामाणिक ज्ञान की उपलब्धि सम्प्रदायानुगत रहते हुए वस्तु तत्त्व की अपरोक्ष अनुभूति के द्वारा ही सम्भव है । उपनिषदों में निबद्ध श्रुति वचन उसी अपरोक्ष अनुभूति की अभिव्यक्ति होने के कारण प्रामाणिक माने जाते हैं । यही कारण है कि आचार्य शंकर ने केवल श्रुति वाक्यों के द्वारा अनुमोदित तर्कों को ही अद्वैतवादी सिद्धान्तों के प्रतिपादन में प्रमाण के रूप में ग्रहण किया है, “श्रुत्यैव च सहायत्वेन तर्कस्याप्यभ्युपेतत्वात्’ । भगवद्गीता के भाष्य में उन्होनें यहाँ तक कह दिया कि सभी शास्त्रों में निष्णात होने पर भी सम्प्रदाय-ज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति मूर्खवत् उपेक्षणीय है, “सर्वशास्त्रविदपि असम्प्रदायविद् मूर्खवदुपेक्षणीयः” । प्रस्तुत पुस्तक वैदिक उपनिषदों तथा आदि शंकर विरचित भाष्य एवं प्रकरण-ग्रन्थों के साथ–साथ वेदान्त-साहित्य के आधारभूत अन्यान्य प्रमुख पुस्तकों के गहन अध्ययन का प्रतिफल है । शंकराचार्य की दार्शनिक मान्यताओं को जिस रूप में उनके अनुगामीअद्वैत वेदान्त के उत्तरवर्ती आचार्यों द्वारा पल्लवित तथा पुष्पित किया गया, उसका संक्षिप्त विश्लेषण इस पुस्तक की विशेषता है ।