Pahala Number | Upsanhar By Rabindra Nath Thakur

Pahala Number | Upsanhar By Rabindra Nath Thakur

by Rabindra Nath Thakur

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  • ISBN13: 9789348724182
  • Binding: Paperback
  • Publisher: Prabhat Prakashan
  • Publisher Imprint: NA
  • Pages: NA
  • Language: Hindi
  • Edition: NA
  • Item Weight: 500
  • BISAC Subject(s): Literature
उपसंहार में टैगोर ने जीवन के समाप्ति के बाद की स्थिति और जीवन के गहरे अर्थों को परिभाषित किया है। यह रचना आत्मा के शांति की ओर बढ़ने की यात्रा को दर्शाती है, जहाँ व्यक्ति ने अपने भौतिक अस्तित्व और सांसारिक संपत्तियों से परे जाकर आत्म-ज्ञान और ईश्वर के प्रति अपनी आस्था को खोज लिया होता है। यह कविता जीवन के कठिन मार्गों के बाद आत्मा के शांति की खोज और उसकी वास्तविकता पर विचार करती है, जो कभी भी जीवन की आधिकारिक यात्रा का समापन नहीं होता, बल्कि यह जीवन के शाश्वत सत्य से जुड़ने की एक निरंतर प्रक्रिया है।

पहला नंबर कविता में टैगोर ने यह संदेश दिया है कि समाज में सफलता का मापदंड केवल बाहरी उपलब्धियों पर आधारित नहीं होता, बल्कि एक व्यक्ति की आंतरिक पूर्ति और शांति महत्वपूर्ण होती है। सफलता का वास्तविक मूल्य वही है जो हम खुद से हासिल करते हैं और हमारी आत्म-शांति की स्थिति को दर्शाता है। यह कविता उस महत्व को उजागर करती है जो हमारे खुद के अनुभवों और आत्मनिर्भरता का है, बजाय इसके कि हम बाहरी आदर्शों और प्रतिस्पर्धाओं से प्रभावित हों।
रवींद्रनाथ ठाकुर का जन्म महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी की संतान के रूप में 7 मई, 1861 को कलकत्ता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूली शिक्षा प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। लंदन विश्वविद्यालय से कानून का अध्ययन किया। सन् 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह हुआ। बचपन से ही कविता, छंद और भाषा में उनकी अद्भुत प्रतिभा का आभास मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की आयु में लिखी थी और 1883 में केवल सोलह साल की आयु में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई।

भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकनेवाले युगद्रष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अंग्रेजी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा की आभा पूरे विश्व में फैली। प्रकृति के सान्निध्य में एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना की। सन् 1913 में उनकी काव्य-रचना 'गीतांजलि' के लिए उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।

स्मृतिशेष : 7 अगस्त, 1941 ।

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