Maharaja Ranjit Singh | Founder And First Maharaja of The Sikh Empire
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- ISBN13: 9789394871816
- Binding: Paperback
- Publisher: Prabhat Prakashan
- Publisher Imprint: NA
- Pages: NA
- Language: Hindi
- Edition: NA
- Item Weight: 500
- BISAC Subject(s): History
मुगल बादशाहों के पतन के पश्चात् सबसे अधिक शक्तिशाली शासक के रूप में प्रसिद्ध व चित्रात्मक आकृति महाराजा रणजीत सिंह के अलावा किसी अन्य की नहीं, जो कम समय के लिए लाहौर के अल्पकालिक सिख-राज्य के संस्थापक रहे। सदी के आरंभ के तूफानी दिनों में जातियों और पंथों के भयंकर तनावों के मध्य उन्होंने अपने बल, पराक्रम और साहस से अपना साम्राज्य बनाया। उन्होंने जाँबाज और साहसी लोगों को साथ लेकर एक उत्तम शासन व्यवस्था दी, परंतु महाराजा रणजीत सिंह दीर्घकाल तक शासन नहीं कर पाए।
सिख साम्राज्य के आकस्मिक उदय, इसकी सफलता की दीप्ति और पराभव की परिपूर्णता नेपोलियन के साम्राज्य के समान तीव्र रही। अपने समकालीन नेपोलियन बोनापार्ट की तरह लाहौर के महाराजा रणजीत सिंह क्षुद्र राज्यों, राजपूतों, मुसलमानों एवं सिखों के आक्रमण और बरबादी के कारण स्थायी राजवंश बनाने में असफल रहे।
यह पुस्तक एक दुर्जेय और पराक्रमी योद्धा, कूटनीतिज्ञ, प्रजावत्सल और दूरदर्शी शासक महाराजा रणजीत सिंह की प्रखरता ओजस्विता की यशोगाथा कहती है; साथ ही उनके साथ के सैन्य बलों की निरंकुशता, शासन की विफलता की करुणगाथा भी बताती है, जिसने इन तेजस्वी शासन की कीर्ति को मलिन कर दिया।
सिख साम्राज्य के आकस्मिक उदय, इसकी सफलता की दीप्ति और पराभव की परिपूर्णता नेपोलियन के साम्राज्य के समान तीव्र रही। अपने समकालीन नेपोलियन बोनापार्ट की तरह लाहौर के महाराजा रणजीत सिंह क्षुद्र राज्यों, राजपूतों, मुसलमानों एवं सिखों के आक्रमण और बरबादी के कारण स्थायी राजवंश बनाने में असफल रहे।
यह पुस्तक एक दुर्जेय और पराक्रमी योद्धा, कूटनीतिज्ञ, प्रजावत्सल और दूरदर्शी शासक महाराजा रणजीत सिंह की प्रखरता ओजस्विता की यशोगाथा कहती है; साथ ही उनके साथ के सैन्य बलों की निरंकुशता, शासन की विफलता की करुणगाथा भी बताती है, जिसने इन तेजस्वी शासन की कीर्ति को मलिन कर दिया।
सर लैपल हेनरी ग्रिफ्फिन, (20 जुलाई, 1838-9 मार्च, 1908) भारत में ब्रिटिश राज के दौरान एक ब्रिटिश प्रशासक और राजनयिक थे। वे नवंबर 1860 में भारत आए और लाहौर में तैनात हुए। 1880 में वे पंजाब के मुख्य सचिव बने। दूसरे अफगान युद्ध के अंत में उन्हें काबुल में एक राजनयिक प्रतिनिधि के रूप में भेजा गया था। वे तब मध्य भारत में गवर्नर जनरल के एजेंट और इंदौर तथा हैदराबाद में रेजिडेंट थे। यू.के. लौटने के बाद वे ईस्ट इंडिया एसोसिएशन के अध्यक्ष बने।
वे कई वर्षों तक इंपीरियल बैंक ऑफ पर्शिया के अध्यक्ष भी रहे और 1902 के अंत में उन्हें पर्शिया के शाह से ऑर्डर ऑफ द लायन एंड द सन का ग्रैंड क्रॉस मिला। यह पुस्तक उनके भारत में हुए अनुभवों और दृष्टांतों पर आधारित है।
वे कई वर्षों तक इंपीरियल बैंक ऑफ पर्शिया के अध्यक्ष भी रहे और 1902 के अंत में उन्हें पर्शिया के शाह से ऑर्डर ऑफ द लायन एंड द सन का ग्रैंड क्रॉस मिला। यह पुस्तक उनके भारत में हुए अनुभवों और दृष्टांतों पर आधारित है।