Jeevan Ka Satya By Rabindra Nath Thakur
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- ISBN13: 9789348724984
- Binding: Paperback
- Publisher: Prabhat Prakashan
- Publisher Imprint: NA
- Pages: NA
- Language: Hindi
- Edition: NA
- Item Weight: 500
- BISAC Subject(s): Literature
रवींद्रनाथ टैगोर की "जीवन का सत्य" केवल एक साहित्यिक कृति नहीं है, बल्कि यह जीवन के गहरे और व्यापक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने का एक साधन है। उनकी यह रचना भारतीय समाज के साथ-साथ पश्चिमी दुनिया में भी गहरी छाप छोड़ने में सफल रही। टैगोर के विचार और उनके लेखन की यह विशिष्टता थी कि उन्होंने जीवन, प्रेम, आत्मा, और ईश्वर के बारे में विचार करते हुए सांस्कृतिक और धार्मिक सीमाओं को पार किया।
यह रचना यह सिखाती है कि जीवन का असली अर्थ बाहरी उपलब्धियों और भौतिक सुखों से नहीं है, बल्कि यह हमारे आंतरिक सत्य, आत्मा की शुद्धता, और परमात्मा के साथ जुड़ने में है। रवींद्रनाथ टैगोर ने हमें यह समझने का अवसर दिया कि जीवन के गहरे अर्थ को समझने और स्वीकार करने के लिए हमें अपने भीतर की यात्रा करनी चाहिए।
यह रचना यह सिखाती है कि जीवन का असली अर्थ बाहरी उपलब्धियों और भौतिक सुखों से नहीं है, बल्कि यह हमारे आंतरिक सत्य, आत्मा की शुद्धता, और परमात्मा के साथ जुड़ने में है। रवींद्रनाथ टैगोर ने हमें यह समझने का अवसर दिया कि जीवन के गहरे अर्थ को समझने और स्वीकार करने के लिए हमें अपने भीतर की यात्रा करनी चाहिए।
रवींद्रनाथ ठाकुर का जन्म महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी की संतान के रूप में 7 मई, 1861 को कलकत्ता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूली शिक्षा प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। लंदन विश्वविद्यालय से कानून का अध्ययन किया। सन् 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह हुआ। बचपन से ही कविता, छंद और भाषा में उनकी अद्भुत प्रतिभा का आभास मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की आयु में लिखी थी और 1883 में केवल सोलह साल की आयु में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई।
भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकनेवाले युगद्रष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अंग्रेजी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा की आभा पूरे विश्व में फैली। प्रकृति के सान्निध्य में एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना की। सन् 1913 में उनकी काव्य-रचना 'गीतांजलि' के लिए उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।
स्मृतिशेष : 7 अगस्त, 1941 ।
भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकनेवाले युगद्रष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अंग्रेजी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा की आभा पूरे विश्व में फैली। प्रकृति के सान्निध्य में एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना की। सन् 1913 में उनकी काव्य-रचना 'गीतांजलि' के लिए उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।
स्मृतिशेष : 7 अगस्त, 1941 ।