Guptkal Ki Virasat : Vishnudhwaj

Guptkal Ki Virasat : Vishnudhwaj

by Dr. R.S. Raghav

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  • ISBN13: 9789354887475
  • Binding: Paperback
  • Publisher: Prabhat Prakashan
  • Publisher Imprint: NA
  • Pages: NA
  • Language: Hindi
  • Edition: NA
  • Item Weight: 500
  • BISAC Subject(s): History
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद से हमारे देश का पुरातत्त्व विभाग विष्णुध्वज की भित्ति पर तीन फीट ऊँचे अरबी वाक्यों को देखकर भौंचक है। कारण, इतने विशाल अक्षरों के सामने अन्य कौन से प्रमाण देखे जाएँ। यही सबसे बड़ा प्रमाण मानकर वह उल्टी गंगा बहाने का राष्ट्रीय दायित्व पूर्ण करता आ रहा है। शेष सब प्रमाण उसके लिए गोबर-मिट्टी के समान हैं।

पुरातत्त्व विभाग को विष्णुध्वज के अन्य दुर्लभ चिह्न नहीं दिखाई देते। भारत के पावन मंदिरों में प्रयुक्त होने वाले भाँति-भाँति के मंगल पुष्प, बंदनवार, घंटे, घंटियाँ, कमल, दीपक, कलश, पान, स्तूप आदि उसके लिए छोटे और बहुत ऊँचाई पर बने, आँखों से न दिखाई देने वाले चिह्न हैं। जबकि ये सब चिह्न विष्णुध्वज की परिधि पर बंदनवार के रूप में बने हैं। बंदनवार केवल भारतीय संस्कृति के भवनों, मंदिरों, तीर्थों में ही मिलता है। खंडित किए गए पूरे परिसर में देवी, देवताओं, दिगंबर साधुओं, रति-कामदेवों जैसे मनमोहक चित्र भी हैं। ऐसी कला मुसलिम भवनों, स्मारकों में कहीं नहीं मिलती।

यह सोचने की बात है कि पुरातत्त्व विभाग को किसने भटकाया? अनेक ऐसे चित्र तो मात्र 10 से लेकर 20-30 फीट ऊपर तक भी घंटे घंटियों और कमल के बंदनवारों के रूप में हैं। यदि सैकड़ों फीट ऊपर के चित्र छोड़ भी दें तो ये क्यों नहीं दिखाई दिए ? आखिर पुरातत्त्व विभाग ने अपना राष्ट्रीय दायित्व निभाने में कोताही क्यों बरती ?

आज देश और इतिहास के साथ किए गए इस योजनाबद्ध छल का उत्तर देना होगा।
डॉ. राघवेंद्र शर्मा उपनाम राघव (लेखन में डॉ. रा.श. राघव) को लेखन की प्रेरणा पिताश्री के व्रती जीवन से ही मिली, जिन्होंने आपको मात्र 6 वर्ष में गणवेश पहनाकर दीपक चिह्न का भगवा ध्वज हाथ में दिया। आपने केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से साहित्यशास्त्र एवं पीएच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। पुनः सर्वदर्शन से स्नातकोत्तर उपाधि स्वर्णपदक के साथ प्राप्त की। प्रथम लघु लेख 'संस्कृत का अपमान, राष्ट्र का निरादर' नवभारत टाइम्स के प्रभात संस्करण में 22 सितंबर, 1981 को संपादकीय पृष्ठ पर छपा। तभी से लेखन धुन बन गया।

साहित्यशास्त्र एवं दर्शनशास्त्र का अध्यापन तथा कार्यवाहक प्राचार्य का कार्य करते दर्जनों ग्रंथ रचे और दर्जनों ग्रंथ संपादित किए। शिक्षक सम्मान, काव्यसमुद्र सम्मान, संस्कृत समाराधक सम्मान आदि दर्जनों शैक्षणिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक सम्मान मिले। सेवाभाव से 'मानस हंस श्रीराम' एवं 'कैलाश वाणी' पत्रिकाओं के संपादन से तथा इतिहास संकलन समिति दिल्ली से लेखक और सदस्य के रूप में जुड़े हैं।

भारत गीतिका, राष्ट्रधर्म या राष्ट्रद्रोह, बोलती माटी, अंतर्यामी कविताएँ, घेरंड संहिता, शिव संहिता, शिव स्वरोदय, दर्शनत्रयी प्रभा, वेद के रहस्य, गुप्तकाल की विरासत विष्णुध्वज, राष्ट्रघातकों के कृत्य आदि ग्रंथ उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।

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