Daroga Se DCP: L.N. Rao
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- ISBN13: 9789355621313
- Binding: Paperback
- Publisher: Prabhat Prakashan
- Publisher Imprint: NA
- Pages: NA
- Language: Hindi
- Edition: NA
- Item Weight: 500
- BISAC Subject(s): Biography
दारोगा से DCP: एल.एन. राव' आँख को चुभते चटकीले रंगों से रँगी-पुती एक अदना सी किताब भर नहीं है। यह तो कालांतर के (1960-1970) बेहद पिछड़े गाँव के एक उस ठेठ देहाती कहिए या फिर उस अल्लहड़ मासूम बालक 'लच्छू' की बेबाक मुँहजुबानी-सच्ची कहानी है, बीते वक्त में जिसके मासूम बचपन ने आँखों में सुनहरे सपनों की जगह देखी थी तो सिर्फ और सिर्फ, दो वक्त की रोटी पाने की बेरहम-बेकाबू 'ललक' या कहिए 'भूख', जिसने देखा था बेहया मजबूरियों के चंगुल में फँसे अपने भविष्य को हर कदम पर दम तोड़ते हुए, यह बेलाग लपेट 'आपबीती' है उस मासूम की, जो तमाम दुश्वारियों से जूझता हुआ दारोगा से DCP बना।
आज विपरीत वक्त और हालातों की दुहाई देकर टूटकर बिखर जाने वाले युवाओं की प्रेरणास्त्रोत है 'दारोगा से DCP: एल.एन. राव' की यह कहानी, जिसके पाँवों में अगर गरीबी-गुरबत की बेड़ियों के बंधन थे, तो उन बंधनों को भी बीते कल के इसी जुझारू बालक लच्छू ने ही काटने की कुव्वत भी तो की, कालांतर का वही ठेठ देहाती अल्लहड़ बच्चा, हवा के विपरीत भी दौड़ता हुआ आखिर कैसे पा सका मंजिल को ? इन्हीं सौ-सौ सवालों का जवाब ही तो है इस वक्त आपके हाथों में, आपके सामने मौजूद 'दारोगा से DCP: एल.एन. राव'।
आज विपरीत वक्त और हालातों की दुहाई देकर टूटकर बिखर जाने वाले युवाओं की प्रेरणास्त्रोत है 'दारोगा से DCP: एल.एन. राव' की यह कहानी, जिसके पाँवों में अगर गरीबी-गुरबत की बेड़ियों के बंधन थे, तो उन बंधनों को भी बीते कल के इसी जुझारू बालक लच्छू ने ही काटने की कुव्वत भी तो की, कालांतर का वही ठेठ देहाती अल्लहड़ बच्चा, हवा के विपरीत भी दौड़ता हुआ आखिर कैसे पा सका मंजिल को ? इन्हीं सौ-सौ सवालों का जवाब ही तो है इस वक्त आपके हाथों में, आपके सामने मौजूद 'दारोगा से DCP: एल.एन. राव'।
एल.एन. राव
हरियाणा के गाँव ताजपुर (अटेली मंडी) में 3 अप्रैल, 1954 को जन्म हुआ। होश सँभाला तो माँ-बाप को खेत-खलिहान में हाड़तोड़ मेहनत करते देखा। गरीबी के कारण दो वक्त की रोटी मयस्सर होना दूर की कौड़ी थी। साइकिल, रेडियो, घड़ी खरीदने की कुव्वत नहीं थी। गाँव में कबड्डी-कुश्ती-गुल्ली-डंडा ओलंपिक जैसे खेल थे।
खाकी वर्दी का खौफ ऐसा था कि एक दिन स्कूल जाते वक्त रास्ते में, थाने के मुख्य द्वार पर खड़े सिपाही को देखकर घिग्गी बँध गई। डर के मारे उसी दिन से थाने के सामने से होकर स्कूल जाने का वह रास्ता बदल दिया। विधि का विधान देखिए कि कालांतर में जीवन-यापन के लिए उसी पुलिस-महकमे की नौकरी करने को मिली, जिससे बचपन में खौफजदा रहता था। 1970 के दशक में वही खाकी वर्दी न केवल मेरी 'जीवन-रेखा' बनी, अपितु 'दारोगा से DCP: एल.एन. राव' लिखने की असल वजह भी बनी। उसी खाकी वर्दी, यानी पुलिस की नौकरी ने मुझे इस कदर बहादुर बना डाला कि दिन-दहाड़े हुई कई खूनी-मुठभेड़ (पुलिस एनकाउंटर) में बदन पर गोलियाँ भी खाने की आदत पड़ गई।
संजीव चौहान
पत्रकारिता के भीड़ भरे बाजार में खुद को बिना 'बेचे' जो हासिल किया, उसी 'जमा-पूँजी' से आज भी मेरी जेब 'वजनदार' और मन 'हल्का' है। उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में जन्म लेने के बाद से शुरू हुई जद्दोजहद ने दिल्ली पहुँचने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ा। दिल्ली की 'भीड़' में खुद की 'साख' बचाए रखने की उम्मीद का 'दीया' किसी विकलांग से बैसाखी माँगे बिना खुद के बलबूते अब तक जलाए हुए हूँ।
साल 1990 में चार पन्ने के हिंदी सांध्य दैनिक 'विश्व मानव' से शुरू सफर 'आज', 'दैनिक जागरण', 'राष्ट्रीय सहारा' (सभी हिंदी दैनिक अखबार), सहारा समय नेशनल, स्टार-न्यूज (अब एबीपी), आजतक, (देश के सभी प्रसिद्ध न्यूज चैनल) द्विभाषी (हिंदी-अंग्रेजी) इंटरनेशनल न्यूज एजेंसी आई.ए.एन.एस., TV9 भारतवर्ष (डिजिटल) तक कैसे पहुँच सका ? सवाल के जवाब में मशहूर शायर के चंद अल्फाज ही सबकुछ हैं...
ताक में दुश्मन भी थे और दोस्त-ए-अजीज भी,
पहला तीर किसने मारा ये कहानी फिर कभी।
हरियाणा के गाँव ताजपुर (अटेली मंडी) में 3 अप्रैल, 1954 को जन्म हुआ। होश सँभाला तो माँ-बाप को खेत-खलिहान में हाड़तोड़ मेहनत करते देखा। गरीबी के कारण दो वक्त की रोटी मयस्सर होना दूर की कौड़ी थी। साइकिल, रेडियो, घड़ी खरीदने की कुव्वत नहीं थी। गाँव में कबड्डी-कुश्ती-गुल्ली-डंडा ओलंपिक जैसे खेल थे।
खाकी वर्दी का खौफ ऐसा था कि एक दिन स्कूल जाते वक्त रास्ते में, थाने के मुख्य द्वार पर खड़े सिपाही को देखकर घिग्गी बँध गई। डर के मारे उसी दिन से थाने के सामने से होकर स्कूल जाने का वह रास्ता बदल दिया। विधि का विधान देखिए कि कालांतर में जीवन-यापन के लिए उसी पुलिस-महकमे की नौकरी करने को मिली, जिससे बचपन में खौफजदा रहता था। 1970 के दशक में वही खाकी वर्दी न केवल मेरी 'जीवन-रेखा' बनी, अपितु 'दारोगा से DCP: एल.एन. राव' लिखने की असल वजह भी बनी। उसी खाकी वर्दी, यानी पुलिस की नौकरी ने मुझे इस कदर बहादुर बना डाला कि दिन-दहाड़े हुई कई खूनी-मुठभेड़ (पुलिस एनकाउंटर) में बदन पर गोलियाँ भी खाने की आदत पड़ गई।
संजीव चौहान
पत्रकारिता के भीड़ भरे बाजार में खुद को बिना 'बेचे' जो हासिल किया, उसी 'जमा-पूँजी' से आज भी मेरी जेब 'वजनदार' और मन 'हल्का' है। उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में जन्म लेने के बाद से शुरू हुई जद्दोजहद ने दिल्ली पहुँचने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ा। दिल्ली की 'भीड़' में खुद की 'साख' बचाए रखने की उम्मीद का 'दीया' किसी विकलांग से बैसाखी माँगे बिना खुद के बलबूते अब तक जलाए हुए हूँ।
साल 1990 में चार पन्ने के हिंदी सांध्य दैनिक 'विश्व मानव' से शुरू सफर 'आज', 'दैनिक जागरण', 'राष्ट्रीय सहारा' (सभी हिंदी दैनिक अखबार), सहारा समय नेशनल, स्टार-न्यूज (अब एबीपी), आजतक, (देश के सभी प्रसिद्ध न्यूज चैनल) द्विभाषी (हिंदी-अंग्रेजी) इंटरनेशनल न्यूज एजेंसी आई.ए.एन.एस., TV9 भारतवर्ष (डिजिटल) तक कैसे पहुँच सका ? सवाल के जवाब में मशहूर शायर के चंद अल्फाज ही सबकुछ हैं...
ताक में दुश्मन भी थे और दोस्त-ए-अजीज भी,
पहला तीर किसने मारा ये कहानी फिर कभी।