Baikunth Ka Khata | Tapaswini Stories By Rabindra Nath Thakur
₹350.00
₹298.00
14% OFF
Ships in 1 - 2 Days
Secure Payment Methods at Checkout
- ISBN13: 9789348724816
- Binding: Paperback
- Publisher: Prabhat Prakashan
- Publisher Imprint: NA
- Pages: NA
- Language: Hindi
- Edition: NA
- Item Weight: 500
- BISAC Subject(s): Literature
बैखुंठ का खाता कहानी एक अत्यधिक प्रेरणादायक और सोच को चुनौती देने वाली कृति है, जो मनुष्य की आस्थाओं, कर्तव्यों, और जीवन के उद्देश्य पर आधारित है। यह कहानी धार्मिकता, कर्म और ईश्वर के प्रति विश्वास के संदर्भ में एक गहरी मंथन करती है।
कहानी में एक व्यक्ति को भगवान के पास बैखुंठ (स्वर्ग) में खाता खोलने के लिए भेजा जाता है, जिससे उसकी आत्मा के सभी अच्छे और बुरे कर्मों का लेखा-जोखा देखा जा सके। यह व्यक्ति अपने जीवन में किए गए अच्छे और बुरे कामों की पूरी सूची प्राप्त करने के लिए स्वर्ग में जाता है, और वहां उसे यह एहसास होता है कि उसका जीवन, उसके कर्म, और उसकी आस्थाएँ केवल बाहरी रूप से महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि आंतरिक रूप से क्या सही है, यह अधिक मायने रखता है।
तपस्विनी कहानी में रवींद्रनाथ ठाकुर ने एक महिला के जीवन के संघर्ष और तपस्या को प्रदर्शित किया है। इस कहानी में एक महिला की आस्था, समर्पण, और उसकी तपस्या को लेकर जीवन के वास्तविक उद्देश्यों पर विचार किया गया है।
कहानी की नायिका एक तपस्विनी है, जो अपने जीवन के हर क्षण को ईश्वर के प्रति समर्पण में बिताती है। उसकी तपस्या का उद्देश्य केवल आत्मिक उन्नति नहीं, बल्कि अपने समाज और परिवार के लिए कुछ सार्थक करना होता है। वह अपने जीवन की कठिनाइयों को सहती है और अपनी आस्थाओं और विश्वासों में दृढ़ रहती है। इस कहानी के माध्यम से रवींद्रनाथ ने यह दिखाया है कि तपस्या और समर्पण केवल एक धार्मिक कृत्य नहीं, बल्कि एक जीवन का उद्देश्य और आंतरिक शांति प्राप्त करने का रास्ता भी है।
कहानी में एक व्यक्ति को भगवान के पास बैखुंठ (स्वर्ग) में खाता खोलने के लिए भेजा जाता है, जिससे उसकी आत्मा के सभी अच्छे और बुरे कर्मों का लेखा-जोखा देखा जा सके। यह व्यक्ति अपने जीवन में किए गए अच्छे और बुरे कामों की पूरी सूची प्राप्त करने के लिए स्वर्ग में जाता है, और वहां उसे यह एहसास होता है कि उसका जीवन, उसके कर्म, और उसकी आस्थाएँ केवल बाहरी रूप से महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि आंतरिक रूप से क्या सही है, यह अधिक मायने रखता है।
तपस्विनी कहानी में रवींद्रनाथ ठाकुर ने एक महिला के जीवन के संघर्ष और तपस्या को प्रदर्शित किया है। इस कहानी में एक महिला की आस्था, समर्पण, और उसकी तपस्या को लेकर जीवन के वास्तविक उद्देश्यों पर विचार किया गया है।
कहानी की नायिका एक तपस्विनी है, जो अपने जीवन के हर क्षण को ईश्वर के प्रति समर्पण में बिताती है। उसकी तपस्या का उद्देश्य केवल आत्मिक उन्नति नहीं, बल्कि अपने समाज और परिवार के लिए कुछ सार्थक करना होता है। वह अपने जीवन की कठिनाइयों को सहती है और अपनी आस्थाओं और विश्वासों में दृढ़ रहती है। इस कहानी के माध्यम से रवींद्रनाथ ने यह दिखाया है कि तपस्या और समर्पण केवल एक धार्मिक कृत्य नहीं, बल्कि एक जीवन का उद्देश्य और आंतरिक शांति प्राप्त करने का रास्ता भी है।
रवींद्रनाथ ठाकुर का जन्म महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी की संतान के रूप में 7 मई, 1861 को कलकत्ता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनकी स्कूली शिक्षा प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। लंदन विश्वविद्यालय से कानून का अध्ययन किया। सन् 1883 में मृणालिनी देवी के साथ उनका विवाह हुआ। बचपन से ही कविता, छंद और भाषा में उनकी अद्भुत प्रतिभा का आभास मिलने लगा था। उन्होंने पहली कविता आठ साल की आयु में लिखी थी और 1883 में केवल सोलह साल की आयु में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई।
भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकनेवाले युगद्रष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अंग्रेजी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा की आभा पूरे विश्व में फैली। प्रकृति के सान्निध्य में एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना की। सन् 1913 में उनकी काव्य-रचना 'गीतांजलि' के लिए उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।
स्मृतिशेष : 7 अगस्त, 1941 ।
भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान फूंकनेवाले युगद्रष्टा टैगोर के सृजन संसार में गीतांजलि, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष, पुनश्च, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, नैवेद्य मायेर खेला और क्षणिका आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। अंग्रेजी अनुवाद के बाद उनकी प्रतिभा की आभा पूरे विश्व में फैली। प्रकृति के सान्निध्य में एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना की। सन् 1913 में उनकी काव्य-रचना 'गीतांजलि' के लिए उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।
स्मृतिशेष : 7 अगस्त, 1941 ।