Agnipankhi
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- ISBN13: 9788185826899
- Binding: Hardcover
- Publisher: Prabhat Prakashan
- Publisher Imprint: NA
- Pages: NA
- Language: Hindi
- Edition: NA
- Item Weight: 500
- BISAC Subject(s): General
प्रस्तुत पुस्तक में दो सामाजिक उपन्यास हैं- ' अग्निपंखी ' और ' सुबह के इंतजार तक ' । ' अग्निपंखी ' में आत्माभिमानी जयशंकर को शहर के मशीनी जीवन में माँ व पत्नी के साथ आर्थिक चुनौतियों तथा अभावों से जूझते दिखाया गया है तो ' सुबह के इंतजार तक में ' एक ऐसी युवती के संघर्षों की गाथा है, जिसका परिवार आर्थिक रूप से इतना समर्थ भी नहीं है कि जवान हो रही बेटी का ब्याह कर सके । अंतत: वह कैसे स्वयं को और अपने परिवार को उबारकर एक सम्मानजनक स्तर पर पहुँचाती है, उसी सबका कारुणिक वणन है ।
हृदय को झकझोर देनेवाले ये मार्मिक उपन्यास पाठकों के अंतर को छू जानेवाले हैं ।
'' हाँ तो, गा तो चुकीं उनसे पूरी गाथा कि कुक्कर मूते इस सहेर पर । एक कोठरी में दम घुटा जाता है-जेहल से भी बत्तर । अरे, ये भी कोई देस है! तो क्यों आई? मैं बुलाने गया था तुम्हें? तब तो जैसे धुन पकड़ ली थी । और अब जब से आई हो, खुचर कर- करके जीना दूभर कर दिया है । ऐसे-ऐसे चार कुनबेवाले रोज आकर बैठने लगें तो हम लोग क्या सड़क पर जाकर बैठेंगे? हजार दफे कह दिया, समझा दिया, सहर का कायदा अलग है, गाँव का अलग; पर तुम्हारे मगज में घुसता ही नहीं! सारे दिन तिरलोकी ठाकुर को बुलाकर बिठाए रहीं । अब वह (बहु कहाँ बैठती, यह भी सोचा? सामने बैठती तो बेसरम बना देतीं... और अब जलालपुर का कुनबा न्योत रही हो । कहाँ बिठाएँगे? अपने सिर पर?''
सन्न... अवाक् । वे जयशंकर का चिड़चिड़ाया, तमतमाया मुँह देखती रहीं- तो इसकी बेरुखी, इसकी रंजिश, झल्लाहट सब सच है । बहू ने कब, कैसे सुन लिया- और सुना भी तो.. .मैं तो तमाम शहर में रहनेवालों के लिए कह रही थी-यह बेगाना, अजनबी शहर इसका इतना अपना कब से हो गया? और अपना सबकुछ बेगाना ।
- अग्निपंखी ' से
हृदय को झकझोर देनेवाले ये मार्मिक उपन्यास पाठकों के अंतर को छू जानेवाले हैं ।
'' हाँ तो, गा तो चुकीं उनसे पूरी गाथा कि कुक्कर मूते इस सहेर पर । एक कोठरी में दम घुटा जाता है-जेहल से भी बत्तर । अरे, ये भी कोई देस है! तो क्यों आई? मैं बुलाने गया था तुम्हें? तब तो जैसे धुन पकड़ ली थी । और अब जब से आई हो, खुचर कर- करके जीना दूभर कर दिया है । ऐसे-ऐसे चार कुनबेवाले रोज आकर बैठने लगें तो हम लोग क्या सड़क पर जाकर बैठेंगे? हजार दफे कह दिया, समझा दिया, सहर का कायदा अलग है, गाँव का अलग; पर तुम्हारे मगज में घुसता ही नहीं! सारे दिन तिरलोकी ठाकुर को बुलाकर बिठाए रहीं । अब वह (बहु कहाँ बैठती, यह भी सोचा? सामने बैठती तो बेसरम बना देतीं... और अब जलालपुर का कुनबा न्योत रही हो । कहाँ बिठाएँगे? अपने सिर पर?''
सन्न... अवाक् । वे जयशंकर का चिड़चिड़ाया, तमतमाया मुँह देखती रहीं- तो इसकी बेरुखी, इसकी रंजिश, झल्लाहट सब सच है । बहू ने कब, कैसे सुन लिया- और सुना भी तो.. .मैं तो तमाम शहर में रहनेवालों के लिए कह रही थी-यह बेगाना, अजनबी शहर इसका इतना अपना कब से हो गया? और अपना सबकुछ बेगाना ।
- अग्निपंखी ' से
सूर्यबाला
जन्म : 25 अक्तूबर, 1944 को वाराणसी में ।
शिक्षा : एम.ए., पी- एच.डी. (काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी) ।
प्रकाशन : ' मेरे संधि पत्र ', ' सुबह के इंतजार तक ', ' यामिनी- कथा ', ' दीक्षांत ', ' अग्निपंखी ' (उपन्यास), ' एक इंद्रधनुष ', ' दिशाहीन ', ' थाली भर चाँद ', ' मुँडेर पर ', ' गृह -प्रवेश ', ' कात्यायनी संवाद ', ' साँझवाती ' (कहानी संग्रह); ' अजगर करे न चाकरी ', ' धृतराष्ट्र टाइम्स ' (व्यंग्य संग्रह) ।
पिछले ढाई दशकों से हिंदी कहानी, उपन्यास और हास्य-व्यंग्य में एक सुपरिचित, प्रतिष्ठित नाम । अनेक रचनाओं का अंग्रेजी, उर्दू मराठी, बँगला, पंजाबी, तेलुगु, कन्नड़ आदि भाषाओं में अनुवाद ।
आकाशवाणी, दूरर्दशन एवं धारावाहिकों में अनेक कहानियों, उपन्यासों तथा व्यंग्य रचनाओं का रूपांतर प्रस्तुत ।
दूरदर्शन धारावाहिकों में ' पलाश के फूल ', ' न, किन्नी न ', ' सौदागर दुआओं के ', ' एक इंद्रधनुष जुबेदा के नाम ', ' सबको पता है ', ' रेस ' तथा ' निर्वासित ' आदि प्रमुख हैं । सम्मान-पुरस्कार : साहित्य में योगदान के लिए ' प्रियदर्शिनी पुरस्कार ', ' घनश्याम दास सराफ पुरस्कार ' तथा काशी नागरी प्रचारिणी सभा, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मुंबई विद्यापीठ, आरोही, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, सतपुड़ा संस्कृति परिषद् आदि संस्थाओं से सम्मानिन ।
जन्म : 25 अक्तूबर, 1944 को वाराणसी में ।
शिक्षा : एम.ए., पी- एच.डी. (काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी) ।
प्रकाशन : ' मेरे संधि पत्र ', ' सुबह के इंतजार तक ', ' यामिनी- कथा ', ' दीक्षांत ', ' अग्निपंखी ' (उपन्यास), ' एक इंद्रधनुष ', ' दिशाहीन ', ' थाली भर चाँद ', ' मुँडेर पर ', ' गृह -प्रवेश ', ' कात्यायनी संवाद ', ' साँझवाती ' (कहानी संग्रह); ' अजगर करे न चाकरी ', ' धृतराष्ट्र टाइम्स ' (व्यंग्य संग्रह) ।
पिछले ढाई दशकों से हिंदी कहानी, उपन्यास और हास्य-व्यंग्य में एक सुपरिचित, प्रतिष्ठित नाम । अनेक रचनाओं का अंग्रेजी, उर्दू मराठी, बँगला, पंजाबी, तेलुगु, कन्नड़ आदि भाषाओं में अनुवाद ।
आकाशवाणी, दूरर्दशन एवं धारावाहिकों में अनेक कहानियों, उपन्यासों तथा व्यंग्य रचनाओं का रूपांतर प्रस्तुत ।
दूरदर्शन धारावाहिकों में ' पलाश के फूल ', ' न, किन्नी न ', ' सौदागर दुआओं के ', ' एक इंद्रधनुष जुबेदा के नाम ', ' सबको पता है ', ' रेस ' तथा ' निर्वासित ' आदि प्रमुख हैं । सम्मान-पुरस्कार : साहित्य में योगदान के लिए ' प्रियदर्शिनी पुरस्कार ', ' घनश्याम दास सराफ पुरस्कार ' तथा काशी नागरी प्रचारिणी सभा, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मुंबई विद्यापीठ, आरोही, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, सतपुड़ा संस्कृति परिषद् आदि संस्थाओं से सम्मानिन ।