ज्ञान के अब तक प्रचलित पाठ एकांगी और अपूर्ण रहे हैं। ज्ञान के विभिन्न अनुशासन स्त्री को शामिल करने की बात नहीं करते हैं। इनके विमर्शों में से स्त्री बहिष्कृत रही है या इनमें मातहल के तौर पर नगण्य रूप में उपस्थित रही। है। स्त्री की अस्मिता का सवाल केंद्र में आया। स्त्री की अस्मिता संबंधी कोई भी बहस स्त्री की भाषा और सांस्कृतिक उत्पादन में उसकी हिस्सेदारी पर बात किए बिना खत्म नहीं होती।
इस पुस्तक में तीन खंड हैं। इनके अंतर्गत स्त्री की अस्मिता, भाषा और संस्कृति पर बात की गई है। विभिन्न स्त्रीवादी विचारकों के नजरिए का विश्लेषण करके स्त्री से जुड़ें विभिन्न मसलों पर समग्र समझ बनाने की कोशिश की गई है। यह पुस्तक अस्मिता, भाषा और संस्कृति के सैद्धांतिक संज्ञान से टकराते हुए इनका स्त्रीवादी परिप्रेक्ष्य निर्मित करती है।