यह पुस्तक मुख्य रूप से कला के इतिहास लेखन की पद्धति का विवेचन करती है, इसलिए इतिहास चिंतन से जुड़े प्रश्नों पर भी इसमें विचार किया गया है। कला का वैज्ञानिक इतिहास क्या है, इसके साधन क्या हैं और उसकी सीमाएं क्या हैं जैसे विषयों को लेकर इस पुस्तक में गंभीर विमर्श प्रस्तुत किया गया है। इसममें इतिहास के बारे में कुछ दार्शनिक चिंतन भी किया गया है।
ऐतिहासिक प्रक्रिया के चरित्र के विषय में जिसमें कला भी शामिल है, लेखक का मानना है कि कला के इतिहास के लिए समाजशास्त्रीय पद्धति उतनी ही जरूरी है जितनी मनुष्य के किसी अन्य भावनात्मक सृजन के इतिहास के लेखन के लिए।
अगर लेखक की स्थापनाओं को सूत्र रूप में प्रस्तुत करना चाहे तो कह सकते हैं कि इतिहास जो कुछ भी है, सब व्यक्तियों की उपलब्धि है। कहना न होगा कि व्यक्ति हमेशा देशकाल के भीतर कुछ खास परिस्थितियों के बीच रह कर काम करता है; उसका व्यवहार उसकी जन्मजात क्षमता और सामाजिक परिस्थिति, दोनों की उपज होता है। मार्क्सवादी पदावली में कहना चाहे तो कहेंगे कि यही ऐतिहासिक घटनाओं के द्वंद्वात्मक चरित्र के सिद्धांत का सारतत्व है। सफल इतिहास लेखक वह है जो अपने लेखन में इस द्वंद्वात्मक पद्धति का सावधानी पूर्वक इस्तेमाल करता है।
समाजशास्त्र, साहित्यशास्त्र और कलासमीक्षा में द्वंद्ववादी दृष्टि को किस रूप में इस्तेमाल किया जाए, यह पुस्तक उसका अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करती है। कला के समाजशास्त्र और साहित्यशास्त्रके अध्यापक और छात्र तथा कला के इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले इतिहासकर इससे नई दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं।